बूढ़े हाथ और मिट्टी का कर्ज़: एक दिल को छू लेने वाली कहानी

दोपहर की चिलचिलाती धूप थी जब मोहन की सफेद रंग की लग्जरी कार गाँव की कच्ची सड़क पर धूल उड़ाती हुई रुकी। एसी की ठंडक से निकलकर जब उसने बाहर कदम रखा, तो गर्म हवा के थपेड़े ने जैसे उसका स्वागत किया। 5 साल… पूरे 5 साल बाद वह अपने गाँव ‘रामपुर’ लौटा था।

मोहन शहर में एक बड़ी कंपनी में मैनेजर बन गया था। गाँव आने का उसका मकसद सिर्फ़ एक था—पुश्तैनी ज़मीन बेचना। उसे शहर में एक बड़ा फ्लैट खरीदना था और उसके लिए पैसों की कमी पड़ रही थी। उसे लगा कि गाँव की वह ज़मीन वैसे भी बेकार पड़ी है, बाबूजी अब बूढ़े हो गए हैं, उनसे खेती होती नहीं होगी।

घर का वो पुराना आंगन

घर के पुराने लकड़ी के दरवाज़े को धक्का दिया तो ‘चर्रर्र’ की आवाज़ हुई। सामने आंगन में उसके पिता, जिन्हें पूरा गाँव ‘काका’ कहता था, एक टूटी हुई खाट पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। माँ आँगन के कोने में मिट्टी के चूल्हे पर रोटियां सेंक रही थी।

“अरे मोहन! तू आ गया बेटा?” माँ ने अपने मैले आँचल से हाथ पोंछते हुए दौड़कर उसे गले लगा लिया। माँ के बदन से वही पुरानी धुएँ और मसालों की मिली-जुली महक आ रही थी, जो मोहन को बचपन में बहुत सुकून देती थी।

बाबूजी ने अपनी धुंधली आँखों से बेटे को देखा, चेहरे पर झुर्रियों के बीच एक हल्की मुस्कान तैर गई। “आ गया लाला? बहुत दुबला हो गया है रे तू शहर जाकर,” बाबूजी की आवाज़ में एक कंपन था।

रात का सन्नाटा और मतलब की बात

रात को खाने पर मोहन ने देखा कि बाबूजी के हाथ रोटियां तोड़ते वक्त कांप रहे थे। लालटेन की मद्धम रोशनी में उनका चेहरा और भी बूढ़ा लग रहा था। मोहन को थोड़ी झिझक हुई, लेकिन उसने अपनी बात कह ही दी।

“बाबूजी, मैं सोच रहा था कि नदी किनारे वाले खेत बेच देते। वहां अब खेती तो होती नहीं है, और मुझे शहर में फ्लैट की बुकिंग के लिए पैसों की ज़रुरत है। दाम अच्छे मिल रहे हैं।”

मोहन की बात सुनकर चूल्हे की लकड़ी चटकना जैसे बंद हो गई। माँ ने रोटी बेलना रोक दिया। बाबूजी ने खामोशी से पानी का गिलास उठाया, एक घूंट भरा और धीमे स्वर में बोले, “जैसी तेरी मर्जी बेटा। ज़मीन तेरे नाम ही तो है।”

बाबूजी ने न गुस्सा किया, न कोई सवाल पूछा। उनकी यह खामोशी मोहन को चीख-पुकार से ज्यादा चुभ गई।

वो डायरी और पुराना संदूक

अगली सुबह मोहन को वकील के पास जाना था। तैयार होते समय उसे अपनी अलमारी में बाबूजी का पुराना संदूक दिखा। कौतूहलवश उसने उसे खोल लिया। उसमें पुराने कागज़ात, कुछ सिक्के और एक लाल रंग की डायरी थी।

मोहन ने डायरी के पन्ने पलटे। वह बाबूजी का हिसाब-किताब था।

  • 12 जून 1998: मोहन की स्कूल फीस के लिए बैल बेचा।
  • 5 अगस्त 2003: मोहन को इंजीनियरिंग कॉलेज भेजने के लिए माँ के कंगन गिरवी रखे।
  • 20 मई 2010: मोहन की शहर वाली नौकरी के लिए सूट सिलवाने को रामू काका से उधार लिया।

मोहन की आँखों के सामने अंधेरा छा गया। हर पन्ने पर सिर्फ़ ‘देना’ लिखा था, ‘पाना’ कहीं नहीं था। आखिरी पन्ने पर लिखा था— “आज मोहन की नौकरी लग गई। अब मैं चैन से मर सकता हूँ। मेरी मेहनत सफल हुई।”

खेतों में पसीना और आंसू

मोहन डायरी हाथ में लिए सीधे नदी किनारे वाले खेत की ओर भागा। वहां पहुँचकर उसने जो देखा, उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

तपती धूप में, 70 साल का वो बूढ़ा आदमी, जिसे मोहन ‘कमजोर’ समझ रहा था, कुदाल लेकर ज़मीन खोद रहा था। बाबूजी पसीने से लथपथ थे, उनकी धोती मिटटी से सनी थी। वो खेत जिसे मोहन ‘बंजर’ समझकर बेचने आया था, वहां बाबूजी ने छोटी-छोटी क्यारियां बना रखी थीं।

मोहन धीरे-धीरे पीछे जाकर खड़ा हो गया। बाबूजी बड़बड़ा रहे थे, “मेरा बेटा आएगा… उसे ताज़ी सब्जियां पसंद हैं… यह भिंडी उसके लिए लगा रहा हूँ… शायद अगली बार आए तो खा सके।”

मोहन से अब और खड़ा नहीं रहा गया। वह दौड़कर बाबूजी के पैरों में गिर पड़ा। “बाबूजी! मुझे माफ़ कर दीजिये।”

बाबूजी हड़बड़ा गए, “अरे लाला, क्या हुआ? कपड़े गंदे हो जाएंगे तेरे, उठ जा।”

मोहन रोते हुए बोला, “मुझे कोई फ्लैट नहीं चाहिए बाबूजी। यह मिट्टी मेरी माँ है और आप मेरे भगवान। मैं कितना स्वार्थी हो गया था कि जिस ज़मीन ने मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया, जिसने मेरी फीस भरी, आज मैं उसी का सौदा करने चला था।”

बाबूजी ने अपने खुरदरे, मिट्टी सने हाथों से मोहन का चेहरा ऊपर उठाया और पोंछा। उन हाथों की लकीरों में मोहन को अपनी किस्मत दिखाई दी।

निष्कर्ष: असली दौलत

उस दिन मोहन ने वकील को मना कर दिया। शाम को वह भी बाबूजी के साथ खाट पर बैठा। उसने शहर लौटने का फैसला तो किया, लेकिन ज़मीन बेचने का नहीं, बल्कि गाँव में एक छोटा पक्का कमरा बनवाने का, ताकि बाबूजी और माँ को आराम मिल सके।

मोहन समझ चुका था कि कंक्रीट की दीवारों में वो सुकून नहीं है, जो गाँव की इस खुली हवा और माता-पिता के चरणों में है।

यह Desi Kahani in Hindi हमें सिखाती है कि हम दुनिया में चाहे कहीं भी पहुँच जाएं, अपनी जड़ों को कभी नहीं काटना चाहिए। पेड़ तभी तक हरा-भरा रहता है जब तक वह अपनी जड़ों से जुड़ा रहे। माता-पिता का त्याग वह कर्ज है जिसे हम कभी चुका नहीं सकते, बस उसे महसूस कर उनका सम्मान कर सकते हैं।