अंधेर नगरी चौपट राजा
बहुत समय पहले की बात है, एक महन्त जी (गुरु) अपने दो चेलों—नारायण दास और गोवर्धन दास—के साथ यात्रा करते हुए एक सुंदर नगर में पहुँचे। नगर बहुत भव्य था, बाजार सजा हुआ था। महन्त जी ने अपने चेलों को भिक्षा माँगने और नगर का हाल जानने के लिए भेजा।
गोवर्धन दास बाजार गया तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वहाँ हर चीज़ का दाम एक ही था। उसने सब्जी वाले से पूछा, “भाजी क्या भाव है?” जवाब मिला, “टके सेर।” फिर हलवाई से पूछा, “मिठाई क्या भाव है?” जवाब मिला, “टके सेर।” चाहे आटा लो, दाल लो, सोना लो या मिट्टी—सब कुछ ‘टके सेर’ (यानी बेहद सस्ता और एक ही भाव)।
दुकानदारों ने बताया कि इस नगर का नाम ‘अंधेर नगरी’ है और यहाँ का राजा ‘चौपट राजा’ है। यहाँ का नियम है— ‘टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।’
गोवर्धन दास खुशी से नाचने लगा। वह ढेर सारी मिठाई लेकर गुरु जी के पास लौटा और उन्हें बताया कि यहाँ तो मौज ही मौज है। लेकिन समझदार महन्त जी तुरंत गंभीर हो गए। उन्होंने कहा, “बेटा, जिस राज्य में अच्छे और बुरे, महंगे और सस्ते का कोई भेद नहीं, वहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है। यहाँ कभी भी किसी पर भी मुसीबत आ सकती है।”
महन्त जी ने नगर छोड़ने का फैसला किया। नारायण दास उनके साथ चल दिया, लेकिन गोवर्धन दास सस्ते खाने के लालच में वहीं रुक गया। वह दिन भर मजे से हलवा-पूड़ी खाता और मोटा होता गया।
बकरी, दीवार और अजीब इंसाफ
कुछ दिनों बाद, राजदरबार में एक अजीब घटना हुई। एक आदमी रोता हुआ राजा के पास आया और बोला, “महाराज! कल्लू बनिये की दीवार गिर गई और मेरी बकरी उसके नीचे दबकर मर गई। मुझे न्याय चाहिए!”
मूर्ख राजा ने हुक्म दिया, “दीवार को पकड़कर लाओ!”
मंत्रियों ने समझाया कि दीवार नहीं आ सकती, तो कल्लू बनिये को पेश किया गया।
बनिये ने जान बचाने के लिए कहा, “महाराज, इसमें मेरा दोष नहीं। कारीगर ने दीवार कच्ची बनाई थी।”
राजा ने कारीगर को बुलाया। कारीगर ने कहा, “महाराज, चूने वाले ने चूना खराब दिया था।”
चूने वाले ने कहा, “महाराज, भिश्ती (पानी भरने वाला) ने पानी ज्यादा मिला दिया था, इसलिए मसाला गीला हो गया।”
भिश्ती आया तो उसने कहा, “महाराज, कसाई ने मशक (चमड़े का थैला) बड़ी बना दी थी, इसलिए ज्यादा पानी आ गया।”
कसाई ने कहा, “महाराज, गड़रिए ने मुझे बड़ी भेड़ दी थी, इसलिए मशक बड़ी बनी।”
अंत में गड़रिए को बुलाया गया। उसने डरते हुए कहा, “महाराज, जब मैं भेड़ बेच रहा था, तब उधर से कोतवाल साहब की सवारी धूमधाम से निकल रही थी। मेरा ध्यान उधर चला गया और मैंने छोटी की जगह बड़ी भेड़ दे दी।”
राजा ने मेज पर हाथ मारा और फैसला सुनाया— “तो असली मुजरिम कोतवाल है! उसे पकड़ो और अभी के अभी फांसी पर चढ़ा दो।”
फांसी का फंदा और मोटी गर्दन
सिपाही कोतवाल को पकड़कर फांसी देने ले गए। लेकिन वहाँ एक नई मुसीबत खड़ी हो गई। कोतवाल बहुत दुबला-पतला था और फांसी का फंदा बड़ा बन गया था। उसकी गर्दन फंदे में ढीली रह गई।
जब राजा को यह बताया गया, तो उसने अपनी ‘बुद्धि’ का इस्तेमाल करते हुए कहा, “अरे! तो इसमें क्या सोचना? किसी ऐसे आदमी को पकड़ लाओ जिसकी गर्दन मोटी हो और फंदे में फिट आ जाए।”
सिपाही शहर में मोटी गर्दन वाले आदमी की तलाश में निकले। उनकी नज़र हलवा खा-खाकर मोटे हुए गोवर्धन दास पर पड़ी। सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। गोवर्धन दास चिल्लाता रहा कि “मैंने क्या किया है?” लेकिन सिपाहियों ने कहा, “तुमने कुछ नहीं किया, बस तुम्हारी गर्दन फांसी के फंदे के लायक है।”
गुरु की सीख
मौत को सामने देख गोवर्धन दास को अपने गुरु की चेतावनी याद आई— “ऐसे देश में रहना खतरे से खाली नहीं।” उसने मन ही मन गुरु को पुकारा।
महन्त जी अपनी दिव्य दृष्टि से सब जान गए और तुरंत वहाँ पहुँच गए। उन्होंने सिपाहियों से कहा, “मुझे मेरे शिष्य को आखिरी उपदेश देने दो।” फिर उन्होंने गोवर्धन दास के कान में कुछ फुसफुसाया।
इसके बाद गुरु और चेला आपस में झगड़ने लगे।
गुरु कहते— “मैं फांसी पर चढ़ूंगा!”
चेला कहता— “नहीं, मैं फांसी पर चढ़ूंगा!”
सिपाही और खुद राजा भी यह देखकर हैरान रह गए। राजा ने पूछा, “अरे! तुम लोग मरने के लिए क्यों लड़ रहे हो?”
महन्त जी ने कहा, “राजन! यह घड़ी बहुत ही शुभ है। जो इस मुहूर्त में फांसी पर चढ़ेगा, वह सीधा स्वर्ग जाएगा और अगले जन्म में चक्रवर्ती सम्राट बनकर पूरी दुनिया पर राज करेगा।”
मूर्ख राजा यह सुनकर लालच में आ गया। उसने सोचा, “स्वर्ग तो मुझे ही जाना चाहिए।” उसने कड़क कर कहा, “हटो सब! राजा मैं हूँ, तो फांसी पर भी मैं ही चढ़ूंगा।”
और इस तरह, वह मूर्ख राजा खुद फांसी के फंदे पर लटक गया। प्रजा को उस पागल राजा से मुक्ति मिली और गोवर्धन दास की जान बच गई। उसने समझ लिया कि लालच बुरी बला है और मूर्खों की संगति कभी नहीं करनी चाहिए।
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